आखिर हम करें क्या? (3)

         इनमें भी मुख्यरूप से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिये या सम्यग्दर्शन प्राप्त होने के बाद चौथे-पाँचवें गुणस्थान में होनेवाले आत्मोन्मुखी भावों को आत्मानुभूति या आत्मानुभव नाम से अभिहित किया जाता है और भावलिंगी सन्तों को प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त में होनेवाले आत्मोन्मुखी अन्तर्लीन भावों को शुद्धोपयोग या ध्यान नाम से अभिहित किया जाता है।


        जिनागम में कहा गया है कि सभी भावलिंगी सन्त हर अन्तर्मुहूर्त में छठवें गुणस्थान से सातवें गुणस्थान में और सातवें गुणस्थान से छठवें गुणस्थान में जाते-आते रहते हैं।


        उक्त आत्मानुभूति या आत्मध्यान प्राप्त करने के लिये अध्यात्म में रुचि रखने वाले प्रत्येक ज्ञानी-अज्ञानी सभी आत्मार्थी निरन्तर प्रयत्नशील रहते हैं। उनको ध्यान में रखकर ही यह विश्लेषण किया जा रहा है। __ प्रत्येक आत्मार्थी यह चाहता है कि मुझे इसी भव में देह छूटने के पहिले देह से भिन्न भगवान आत्मा के दर्शन हो जावे, आत्मानुभूति हो जावे, सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जावे।
        न केवल चाहते हैं; अपितु तदर्थ निरन्तर प्रयत्नशील भी रहते हैं। आत्मध्यान के आसनों की अवस्था में बैठकर णमोकार मंत्र आदि मंत्रों का उच्चारण करते हैं, स्तोत्रों का पाठ करते है, आत्मा-परमात्मा के बारे में सोचते है; और भी उन्हें जो आवश्यक लगता है, करते हैं; पर उनकी यह शिकायत बनी ही रहती है कि हमने तो खूब प्रयत्न किया, पर कुछ हुआ नहीं, आत्मा के दर्शन नहीं हुये, आत्मानुभव नहीं हुआ।


        वे निराश हो जाते हैं, उनका उत्साह भंग हो जाता है, वे तनावग्रस्त हो जाते हैं, डिप्रेशन में आ जाते हैं


       ऐसे लोग जब यह सुनते हैं कि ध्यान तो उस स्थिति का नाम है; जिसमें न तो कुछ किया जाता है, न कुछ बोला जाता है और न कुछ सोचा जाता है।


       तो वे एकदम किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं। उन्हें कुछ नहीं सूझता, कुछ समझ में नहीं आता और वे सोचने लगते हैं कि आखिर हम करें क्या? उन्हें उक्त स्थिति से उबारने का यह एक सहज प्रयास है।


(क्रमश:)