(गतांक से आगे...)
ऐसे अनेक लोग हमारे पास आते हैं। उनमें कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो आत्मानुभूति नहीं होने पर भी घोषित कर देते हैं कि मुझे (उन्हें) आत्मानुभूति हो गई है। दश-पाँच लोग उनके चक्कर में आ जाते हैं। उनका एक गुट बन जाता है और उनकी दुकान चलने लगती है।
उन्हें न तो आत्मा का सही स्वरूप ही ज्ञात होता है और न यह पता होता है कि आत्मानुभूति का स्वरूप क्या है? आत्मानुभव प्राप्त होने की प्रक्रिया क्या है और उसका क्रम क्या है; आत्मानुभूति सम्पन्न व्यक्ति का आचरण-व्यवहार कैसा होता है?
उन्हें जिनागम का यथोचित् अभ्यास भी नहीं होता
ऐसे लोगों के लिये मैंने 'ध्यान का स्वरूप' एवं 'रहस्य : रहस्यपूर्ण चिट्ठी का' नामक कृति में बहुत कुछ स्पष्ट किया है___
“मैं कौन हूँ' नामक कृति में भी उक्त विषय के सन्दर्भ में लिखे गये पाँच लेख छपे हैं। ___ आत्मानुभव की रुचि रखनेवाले आत्मार्थियों को उक्त कृतियों का आलोड़न अवश्य करना चाहियेउक्त सन्दर्भ में मैंने अभी-अभी द्रव्यसंग्रह महामण्डल विधान की जयमाला में भी लिखा है,
जो इसप्रकार हैं -
(रेखता )
अरे निज आतम को पहिचान आतमा में अपनापन करें।
अरे अपने आतम को जान उसी में अपनेपन से जमे॥
यही है निश्चय सम्यग्दर्श यही है निश्चय सम्यग्ज्ञान।
रतन त्रयशामिल हो जाते करो यदि इक आतम का ध्यान॥१०॥
काय चेष्टा कुछ भी मत करो और कुछ भी ना बोलो बोल।
और ना कुछ भी सोचो भाई! एक आतम में रमो अमोल।।
यही है निश्चय सम्यग्ज्ञान यही है निश्चय सम्यक् ध्यान।
यही है परम शुद्ध उपयोग यही है अद्भुत कार्य महान॥११॥
यही है परम समाधीयोग यही है परमतत्व की लब्धि।
यही है आतम की संवित्ति यही है आतम की उपलब्धि।
यही है परम भक्ति का भाव यही है निर्विकल्प आनन्द।
यही है परम समरसीभाव यही है परमशुद्ध आनन्द॥ १२॥
यही है परम शुद्धचारित्र यही है स्वसंवेदन ज्ञान।
यही है स्वस्वरूप उपलब्धि यही है परमशुद्ध विज्ञान॥
यही है दिव्यध्वनि का सार यही है परमतत्त्व का बोध।
जगत में इसके बिन कुछ नहीं यही एकाग्र चित्त का रोध॥१३॥
यही एकाग्रचित्त का रोध यही है अपनेपन का बोध।
यही है उपयोगी उपयोग यही है योगिजनों का योग।
इसी को कहते हैं सब लोग मिला है यह अद्भुत संयोग।
स्वयं को जानो मानो जमो यही है परमतत्त्व का बोध॥ १४॥
स्वयं को जानो, जानो नहीं जानना होने दो तुम सहज।
जानने का तनाव मत करो जानते रहो निरन्तर सहज॥
अरे करने-धरने का बोझ उतारो हो जावो तम सहज।
जानने के तनाव से रहित जानना होने दो तुम सहज॥ १५॥
जानना होने दो तुम सहज जानने के विकल्प से पार
और तुम हो जावो निर्भार भाड़ में जानो दो तुम भार॥
भाड़ में जाने दो तुम भार करो तुम अपने में निर्धार1
यदि बनना चाहो भगवान उन्हीं से2 हो जावो निर्भार॥ १६॥
उन्हीं-से हो जावो निर्भार उन्हीं-से हो जावो निर्ग्रन्थ
चाहते हो तुम भव का अंत शीघ्र ही छोड़ो जग का पंथ॥
सहजता जीवन का आनन्द यही है परमागम का पंथ।
चलो तुम परमागम के पंथ शीघ्र आवेगा भव का अंत॥१७॥
शीघ्र आवेगा भव का अन्त प्रगट होगा आनन्द अनन्त।
ज्ञान-दर्शन भी होंगे नंत वीर्य भी होगा अरे अनन्त॥
अनन्तानन्द अनन्तानन्द अनन्तानन्द अनन्तानन्द।
अनन्तानन्द अनन्तानन्द अरे भोगोगे काल अनन्त॥१८॥3
उक्त छन्दों में अत्यन्त स्पष्ट रूप से कहा गया है कि - आत्मध्यान में, परमसामायिक में यद्यपि कुछ करना नहीं है, कुछ बोलना भी नहीं है, कुछ सोचना भी नहीं है; तथापि जानना तो सहज होता ही रहता है, होता ही रहेगा; अतः यह सोचना सही नहीं है कि जब करना, बोलना, सोचना सब कुछ बन्द करना ही ध्यान है तो फिर ध्यान में होगा क्या? क्या आत्मा निराश्रय नहीं हो जायेगा, निठल्ला नहीं हो जायेगा?
नहीं होगा, न निराश्रय होगा, न निठल्ला होगा; क्योंकि सहज जानना तो होता ही रहेगा। जानना आत्मा का सहज भी सोचो भाई! एक आतम में रमो निश्चय सम्यग्ज्ञान यही है निश्चय सम्यक् स्वभाव है; वह तो निरन्तर होता ही रहता है।
काया से कुछ करना, वाणी से कुछ बोलना और मन से सोचना - ये सब तो पुद्गल की पर्यायें हैं, पुद्गल के कार्य हैं।
काया से कुछ करना आहारवर्गणा का कार्य है, वाणी से कुछ बोलना भाषावर्गणा का कार्य है और सोचना मनोवर्गणा का कार्य है। आत्मा का कार्य तो जानना-देखना है, जो क्रमशः ज्ञान-दर्शन गुण की पर्यायें हैं
आहारवर्गणा, भाषावर्गणा और मनोवर्गणा - ये सभी पुद्गल की पर्यायें हैं। पुद्गल द्रव्य अजीव द्रव्य है, जो जीव से एकदम भिन्न है। अपने आत्मा से एकदम भिन्न है। अपने आत्मा और इन पौद्गलिक वर्गणाओं के बीच अत्यन्ताभाव की वज्र की दीवार है। इनका कर्ता-धर्ता आत्मा नहीं है
इसपर वह कहता है कि जानने का काम तो करें। जानने के लिये भी तो यह निर्णय करना होगा कि किसको जानें, किसको न जानें?
अनादिकाल से यह आत्मा पर को जानने में लगा है। पर को जानना छोड़कर उसे अपने को जानने में लगावें। इसके लिये भी तो कुछ करना पड़ेगा, एक आसन पर स्थिर होकर बैठना होगा, कुछ सोचना-विचारना होगा, कुछ समझ में नहीं आया तो किसी से कुछ पूंछना होगा; पर आप तो कहते हैं कि कुछ चेष्टा भी मत करो, कुछ बोलो भी नहीं और कुछ सोचो भी नहीं।
अरे भाई! यह सब हम थोड़े ही कह रहे हैं। यह सब तो ध्यान का स्वरूप स्पष्ट करते हुये वीतरागी मुनिराज स्वयं कह रहे हैं। ___
यह सब बातें तो द्रव्यसंग्रह की मूल गाथा में है। एक हजार वर्ष पहले प्राकृत भाषा में लिखी गई मूलगाथा में यह
ध्यान की पूर्व भूमिका में यद्यपि यह सब होता है; तथापि ध्यान की वास्तविक स्थिति में यह कुछ नहीं होता
ध्यान तो एकमात्र जानने रूप ही है। जानना ज्ञान है और जानते रहने का नाम ध्यान है, लगातार जानते रहने का नाम ध्यान है। ज्ञान की स्थिरता ही ध्यान है।
जब भी समाधि की बात आती है तो हमारा ध्यान समाधिमरण की ओर चला जाता है और हम मरण के बारे में ही सोचने लगते हैं।
समाधि का अर्थ तो समताभाव होता है, स्वयं में जमा जाना होता है। यदि यह समताभाव मरण के समय हो, मरण के समय हम स्वयं में समा जाँय तो उसे हम समाधिमरण कह देंगे।
अरे, भाई! समाधि तो जीवन का स्वरूप है। हमें तो समाधिपूर्वक जीना है। हमारा जीवन समाधिमय होना चाहिये, समताभावमय होना चाहिये। यह समताभाव मरण के समय भी बना रहे तो और भी अच्छी बात है।
यह साम्यभाव ही सच्चा धर्म है, वीतरागभाव है।
आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसार में मंगलाचरण के बाद तत्काल कहते हैं -
'उवसंपयामि सम्मं जत्तो निव्वाणसंपत्ती।''
निर्वाणपद दातार समताभाव को धारण करूँ।
मैं उस साम्यभाव को प्राप्त करता हूँ, जिससे निर्वाण की प्राप्ति होती है।
(क्रमशः)