आखिर हम करें क्या? (8)

___ यदि अनादि से सुनिश्चित नहीं होता तो आदिनाथ यह कैसे बता सकते थे कि यह मारीचि एक कोड़ाकोढ़ी सागर बाद चौबीसवाँ तीर्थंकर महावीर होगा तथा एक भव पहले सोलहवें स्वर्ग में रहते हुये उन्होंने मनुष्य आयुकर्म का बंध किया ही था। पर इनमें परस्पर विरोध नहीं है; क्योंकि हमारी आगामी आयुकर्म का बंध उसी के अनुसार होता है, जिस पर्याय में हमारा जाना अनादि से ही नक्की है। ___ यहाँ भी यह प्रश्न हो सकता है कि हमारी आगामी आयु का बंध हमारे परिणामों के अनुसार होता है या अनादि सुनिश्चित के अनुसार। हमारे परिणाम भी उस अनादि सुनिश्चित -अनुसार होते हैं। अतः इनमें परस्पर कोई विरोध नहीं है___ इसीप्रकार हमारी ज्ञान पर्याय का ज्ञेय अनादि से तो सुनिश्चित है ही, साथ में सुनिश्चित समय पहले हमारे ज्ञानावरणी कर्म क्षयोपशम भी होता है। इसप्रकार दोनों के अनुसार ही ज्ञानपर्याय का ज्ञेय बनता है। इन दोनों में परस्पर कोई विरोध नहीं है; अपितु सुन्दरतम सुमेल है। __ इसप्रकार यह सब सुनिश्चित ही है कि हमारी ज्ञानपर्याय का ज्ञेय अमुक समय में कौन बनेगा? जिसको ज्ञेय बनना है, क्षयोपशम भी उसी के अनुसार ही होगा__सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जीव निर्भय होते हैं; उनकी निर्भयता का आधार वस्तुस्वरूप जान लेना ही होता है। कविवर बुधजनजी लिखते हैं - "हमें कछु भय ना रे, जान लियो संसार" अब हमें किसी भी प्रकार का भय नहीं है; क्योंकि हमने संसार का स्वरूप जान लिया है। उनकी निर्भयता का आधार सुरक्षा की व्यवस्था नहीं है; अपितु संसार का स्वरूप जान लेना है। वे आगे लिखते हैं - जा करि जैसे जाहि समय में जो होतव जा द्वारसो बनिहै टरिहै कछु नाहीं कर लीनो निर्धार। जिसके द्वारा जिसप्रकार जिस समय जिस निमित्त पूर्वक जो होनहार होना है; वह अवश्य होगी, किसी भी स्थिति में टलेगी नहीं - मैंने ऐसा पक्का निर्णय कर लिया है। वे उक्त कथन को ही संसार का स्वरूप कहते हैं। उनकी दृष्टि में स्त्री-पुत्रादि कोई सगा साथी नहीं है। संकट आने पर कोई साथ नहीं देता है। संसार का स्वरूप यह नहीं है, पर वे साथ दे नहीं सकते; क्योंकि एक द्रव्य का दूसरा द्रव्य कुछ नहीं कर सकता और जिस समय जो होना है, वह हो के ही रहता है, उसे कोई टाल नहीं सकता - संसार का वास्तविक स्वरूप तो यह है। उनकी निर्भयता का आधार तो क्रमनियमित -पर्याय की सच्ची श्रद्धा है। हम क्रमनियमितपर्याय की श्रद्धा तो करना नहीं चाहते और लौकिक व्यवस्था के आधार पर निर्भय होना चाहते हैं; जो किसी भी स्थिति में संभव नहीं है। ध्यान की अवस्था में आत्मा को पूरी तरह निश्चिन्त होना चाहिये। 'सब कुछ सुनिश्चित हैं वस्तु का यह स्वरूप इसे निश्चिन्त कर सकता है। इसकी सम्यक् श्रद्धा बिना कर्तृत्व के विकल्प टूटते नहीं हैं। जब हम यह समझाते हैं तो यह एकदम झुंझलाकर कहता है कि 'आखिर हम करें क्या?जब हम यह स्पष्ट कहते हैं कि कुछ भी न करो, फिर भी यही कहता है कि आखिर हम करें क्या? 'नहीं करना' इसकी समझ में ही नहीं आता। अतः नहीं करने की बात को करने की भाषा में पूँछता है___ नहीं करने के लिये भी इसे कुछ करना है, कुछ न कुछ करना है। अनादिकालीन कर्तृत्व का संस्कार इतना गहरा है कि उसके विरुद्ध इसे कुछ समझ ही नहीं आता, सुनाई नहीं देता, दिखाई नहीं देता। नहीं करने रूप ध्यान के लिये भी इसे कुछ न कुछ करना है। यह इसकी कर्मचेतना है, अज्ञान-चेतना है। चेतना _ करने के प्रति चेतना ही कर्म चेतना हैकरने के प्रति यह इतनी गहराई से चेता हुआ है कि इसे नहीं करने रूप समाधि समझ में ही नहीं आतीचेतना दो प्रकार की होती है - १. ज्ञान चेतना और २. अज्ञान चेतनाअज्ञान चेतना भी दो प्रकार की होती है - १. कर्म चेतना और २. कर्मफल चेतना। इसप्रकार कुल मिलाकर यह चेतना तीन प्रकार की हो गई। १. ज्ञान चेतना २. कर्म चेतना और ३. कर्मफल चेतनाइसकी स्थिति को निम्नांकित चार्ट से समझा जा सकता १. ज्ञान चेतना अज्ञान चेतना २. कर्म चेतना ३. कर्मफल चेतना चेतना जाग्रत होने का नाम है। अपने आत्मा के ज्ञानदर्शन-चारित्र में चेतना ज्ञान चेतना है और कर्म और कर्मफल में चेतना अज्ञान चेतना है। करूँ-करूँ का विकल्प करते रहना, उसी में उलझे रहना कर्म चेतना है और कर्म के फल को भोगने में चेतते रहना कर्मफल चेतना है। ज्ञानीजनों के ज्ञानचेतना होती है और अज्ञानी जीवों के कर्मचेतना और कर्मफल चेतना होती हैकर्मचेतना वाले जीव निरन्तर कुछ न कुछ करते रहने के विकल्पों में उलझे रहते हैं। उनकी वृत्ति और प्रवृत्ति करूँकरूँ की होती है। कर्मफल चेतना वाले जीव जो कुछ भी । उपलब्ध होता है, उसे भोगने के विकल्प में ही उलझे रहते हैं। कुछ जीव ऐसे भी होते हैं कि जिनकी वृत्ति और प्रवृत्ति करने और भोगने दोनों में होती है___ आत्मा के सहज ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव को सहजभाव से स्वीकार करने वाले ज्ञानीजन ज्ञानचेतना वाले हैं। ज्ञानीजन पर का कर्ता तो अपने को मानते ही नहीं हैं, अपनी पर्यायों के फेरफार कर्ता भी वे अपने को नहीं मानते। यह श्रद्धा के स्तर की बात है। चारित्रमोह के उदयानुसार उन्हें करने-भोगने के विकल्प आ सकते हैं; तथापि वे श्रद्धा के स्तर पर उनके कर्ता-भोक्ता नहीं बनते। ___ इसप्रकार जानना, मात्र जानना, सहजभाव से जानते रहना ही ज्ञान चेतना है___ पर क्या करें, 'मात्र जानना' इसकी समझ में ही नहीं आताशुद्ध (प्योर) ज्ञान भी हो सकता है, यह इसकी समझ के बाहर है। अतः जानना, जानना, सिर्फ जानने में इसे शून्य नजर आता है; जबकि आत्मा का स्वभाव सिर्फ जानना ही है, सिद्धभगवान सिर्फ जानते ही हैं, अनन्तकाल तक वे सिर्फ जानते ही रहते हैं और अनन्त सुखी रहते हैं। __ सिर्फ जानते रहने में भी अनन्त सुख हो सकता है - यह इसकी समझ के बाहर की चीज हैं। ____ मात्र जानने के फल में अनन्तानन्द की प्राप्ति होती हैयह पीछे १८वें छन्द में कहके आये हैं; जो इसप्रकार है -


शीघ्र आवेगा भव का अन्त प्रगट होगा आनन्द अनन्त।


ज्ञान-दर्शन भी होंगे नंत वीर्य भी होगा अरे अनन्त।।


अनन्तानन्द अनन्तानन्द अनन्तानन्द अनन्तानन्द।


अनन्तानन्द अनन्तानन्द अरे भोगोगे काल अनन्त॥१८॥


अप्रभावित होकर जानते रहना और जानकर भी अप्रभावित रहना - यह सहजज्ञान की मुख्य विशेषता है। हमारे सभी अरहंत-सिद्धभगवान निरन्तर सबको देखतेजानते रहते हैं; पर उनसे रंचमात्र भी प्रभावित नहीं होतेयह तो आप जानते ही हैं कि इस संसार में अनन्त जीव हैं और निरन्तर दुख भोग रहे हैं। उनमें उन अरहंत-सिद्ध भगवान के पूर्वभवों के माता-पिता भी हो सकते हैं, भाईबहिन, पत्नी-पुत्रादि भी हो सकते हैं। उन्हें भी वे देखतेजानते रहते हैं। ऐसी स्थिति में भी वे शान्त रहते हैं, अनन्त सुखी रहते हैं।  ध्यान की अवस्था भी ऐसी ही अवस्था है। यदि हमें अरहंत-सिद्धभगवान बनना है तो हमें भी इसीप्रकार के ध्यान को करना होगा; एकदम सहज, शान्त, शीतल रहना होगा। हमें भी अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति होगी___ आखिर हमें यही करना है। यही धर्म है। इससे अधिक और कुछ नहीं____ एक बार हृदय की गहराई से यह स्वीकृत हो जावे कि सबकुछ सुनिश्चित है, कुछ भी फेर-फार संभव नहीं है। फेर-फार की आवश्यकता भी नहीं है; क्योंकि उससे कुछ भी होने वाला नहीं है। तो हमारे चित्त में एकदम हल्कापन आये बिना नहीं रहेगा___ जीवन में सहजता आ जावे - इसका एकमात्र उपाय यही है। और कोई रास्ता नहीं है। आज मानो, कल मानना; चाहे अनन्तकाल बाद मानना; मानना तो यही पड़ेगा; सुख-शान्ति भी इसी से प्राप्त होगीयदि सुख-शान्ति चाहिये तो शीघ्रातिशीघ्र इस बात को स्वीकार करो, क्रमनियमित पर्यायों को स्वीकारो और जीवन में सहज सहजता लाओ। ____ आखिर हम तो यह विचार करके संतोष धारण करते हैं कि हमारे विकल्पों से क्या होता है, तुम्हें क्रमनियमित पर्याय की स्वीकृति तो तभी होगी, जब तुम्हारी उक्त पर्याय प्राप्त करने की होनहार होगी, काललब्धि आयेगी और उक्त दिशा में तुम्हारा पुरुषार्थ जागेगा। ___ वह दिन तुम्हें शीघ्र प्राप्त हो - इस मंगल भावना के साथ विराम लेता हूँ। (दोहा )


आखिर अब हम क्या करें इतना हमें बताव।


हम अपने में जात हैं तुम अपने में जाव॥१॥


साम्यभाव धारण करो छोड़ो सभी विकल्प।


भजो अकर्त्ताभाव को हो जावो अविकल्प ॥२॥